उपन्यास >> सहज साधना सहज साधनाहजारी प्रसाद द्विवेदी
|
12 पाठकों को प्रिय 380 पाठक हैं |
यह पुस्तक में सर्वोपरि विवेच्य-मध्यकाल को सही परिप्रेक्ष्य के रूप में समझाया गया है...
Sahaj Sadhana-
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सहज साधना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृतियों में से एक है, क्योंकि इससे उनके सर्वोपरि विवेच्य-मध्यकाल को सही परिप्रेक्ष्य में सहज ही समझा-समझाया जा सकता है।
कबीर के अनुसार, माया से बद्ध जीव इस जगत को मिथ्या समझता है। ऐसा समझने वाले योगियों को वे अज्ञानी कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार से भागना अथवा योग और तंत्र के कृच्छ्राचार का निर्वाह करना सच्ची साधना नहीं, बल्कि सच्ची साधना कर्म करते हुए अपने बाहर और भीतर ईश्वरीय सत्ता का अनुभव करना है। कबीर और उनके समकालीन अन्य संत-भक्तों का यह विचार एक दिन की उपज नहीं था, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में मध्यकालीन शैवों, बौद्धों और नाथपंथियों की विचारधारा को प्रभावित करने वाले पूर्ववर्ती सम्प्रदायों की भी एक सुदीर्घ परम्परा है, जिसका इस पुस्तक में सम्यक विवेचन हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आचार्य द्विवेदी ने इसमें भारतीय अध्यात्म चेतना की क्रमिक परिणितियों और उनकी विभिन्न साधना पद्धतियों का गहन विश्लेषण किया है। तुलनात्मक अध्ययन और परीक्षणों से गुजरते हुए मनुष्य के अनुभव जन्य ज्ञान को वैज्ञानिकता प्राप्त हुई और इससे उसे जो एक समन्वयात्मक रूप मिला, कबीर उसे ही, ‘सहज साधन’ कहते हैं, अर्थात ’अध्यात्मजगत का समन्वयमूलक वैज्ञानिक रूप।
वस्तुतः मध्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चेतना-भक्ति आन्दोलन के सही स्वरूप-विवेचन के लिए आचार्य द्विवेदी ने जो असाध्य साधना की, सहज साधना उसी का एक महत्वपूर्ण सोपान है।
कबीर के अनुसार, माया से बद्ध जीव इस जगत को मिथ्या समझता है। ऐसा समझने वाले योगियों को वे अज्ञानी कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार से भागना अथवा योग और तंत्र के कृच्छ्राचार का निर्वाह करना सच्ची साधना नहीं, बल्कि सच्ची साधना कर्म करते हुए अपने बाहर और भीतर ईश्वरीय सत्ता का अनुभव करना है। कबीर और उनके समकालीन अन्य संत-भक्तों का यह विचार एक दिन की उपज नहीं था, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में मध्यकालीन शैवों, बौद्धों और नाथपंथियों की विचारधारा को प्रभावित करने वाले पूर्ववर्ती सम्प्रदायों की भी एक सुदीर्घ परम्परा है, जिसका इस पुस्तक में सम्यक विवेचन हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आचार्य द्विवेदी ने इसमें भारतीय अध्यात्म चेतना की क्रमिक परिणितियों और उनकी विभिन्न साधना पद्धतियों का गहन विश्लेषण किया है। तुलनात्मक अध्ययन और परीक्षणों से गुजरते हुए मनुष्य के अनुभव जन्य ज्ञान को वैज्ञानिकता प्राप्त हुई और इससे उसे जो एक समन्वयात्मक रूप मिला, कबीर उसे ही, ‘सहज साधन’ कहते हैं, अर्थात ’अध्यात्मजगत का समन्वयमूलक वैज्ञानिक रूप।
वस्तुतः मध्यकाल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चेतना-भक्ति आन्दोलन के सही स्वरूप-विवेचन के लिए आचार्य द्विवेदी ने जो असाध्य साधना की, सहज साधना उसी का एक महत्वपूर्ण सोपान है।
भूमिका
भारत की आध्यात्मिक परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। आत्मा से संबंधित चिन्तन इस देश की अपनी खोज है और उतना ही सहज अथवा स्वाभाविक है जितना सूर्य का चमकना, वायु का चलना नदियों का बहना। वेदों के समय से आज तक यह चिन्तन अबाध रूप में चलता रहा है। कभी एक भावधारा को प्रमुखता मिली है तो कभी दूसरी को। आगे चलकर एकाधिक भाव-धाराओं ने आपस में मिलकर व्यापक भावधाराओं का रूप ग्रहण किया और इस प्रकार अनेक सम्प्रदायों का निर्माण हुआ।
आध्यात्मिक क्षेत्र में चिन्तन और तप का बहुत महत्त्व रहा है। परवर्ती वैदिक युग में कर्मकाण्ड की तुलना में इन दोनों प्रवृत्तियों का स्थान ऊँचा रहा है। इन दोनों के समन्वय से योग का मार्ग अस्तित्व में आया और उपनिषद्-काल में सदाचार के मेल से योग की महिमा बढ़ी। इस प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिए सदाचरण, ज्ञान और तप की त्रिवेणी को सामूहिक रूप से महत्व प्राप्त हुआ। इनका यह अर्थ नहीं कि अध्यात्म के क्षेत्र में भक्ति को कोई स्थान नहीं था। भक्ति की धारा भले ही अतीत की पृष्ठभूमि में क्षीण दिखायी दे, किन्तु उसकी श्रृंखला अनवरत रूप में लक्षित होती है। गीतों में हमें इन सभी तत्वों के स्पष्ट रूप से दर्शन होते हैं।
भारतीय अध्यात्म का इतिहास हमें बताता है कि निरन्तर परीक्षण के द्वारा अनुभवजन्य ज्ञान वैज्ञानिक रूप धारण करता गया और तुलनात्मक अनुभव और परीक्षण से उसे समन्यात्मक रूप मिलता गया।
आध्यात्मिक जगत् में इसके अनेक उदाहरण हैं। सहज-साधना अध्यात्मजगत् का एक ऐसा ही समन्वयमूलक वैज्ञानिक रूप है।
सहज-साधना का अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप हमें कबीर और उनके समवर्ती सन्तों की वाणियों में देखने को मिलता है, किन्तु इसका सीधा संबंध किसी सम्प्रदाय से नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि यह एक प्रक्रिया की ऐसी परिणति है, जो हमें मध्यकाल के सगुण और निर्गुण दोनों ही प्रकार के भक्तों की रचनाओं में दिखायी देती इसका कारण यह है कि इन दोनों ही प्रकार के भक्तों ने मूल को पकड़ने की चेष्टा की है और उसकी अभिव्यक्ति क्रमश: प्रेमाभिव्यक्ति के रूप में अधिक स्पष्ट हुई है। कबीर की रचनाओं में जो तन्मयता हमें दिखायी देती है, वह सहसा अन्यत्र उस युग सन्तों में भी कम मिलती है। कबीर के पूर्ववर्ती अध्यात्म-ज्ञानियों के जीवन पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जिस अवस्था को उन्होंने विशेष साधनाओं से प्राप्त किया था, वह कबीर के लिए अत्यन्त स्वाभाविक अनुभूति के रूप में सुलभ थी। व्यक्ति के रूप में साधना के क्षेत्र में सफलता की दृष्टि से यह स्थिति अत्यन्य महत्वपूर्ण जान पड़ती है, किन्तु इसके पीछे युगों का चिन्तन, मनन और अभ्यास का इतिहास निहित है जिस पर दृष्टिपात करना अत्यन्त रूचिकर और ज्ञानवर्द्धक हो सकता है।
वैदिक काल से स्पष्ट ही कर्मकाण्ड की प्रधानता से समाज पर यह प्रवाह होना स्वाभाविक था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को यज्ञ-याग आदि के द्वारा पुण्यमय बनाये। कर्मकाण्ड की प्रधानता से चिन्तन की भावना को यदि दुर्बल नहीं बनाया तो उसके लिए अवकाश की कमी अवश्य कर दी। सामाजिक जटिलता की बुद्धि के साथ-साथ चिन्तन की स्थिति कमजोर होती गयी, जिसकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक थी। फलस्वरूप उपनिषद् और आरण्यकों में चिन्तन और एकान्त-सेवन के महत्व का विशेष रूप से अनुभव करते हैं। मानव-इतिहास में सबसे पहले ज्ञान और तप की जितनी प्रभावशाली झलक दिखायी देती है, उसका उदाहरण अन्यत्र किसी साहित्य में मिलना कठिन है। आगे चलकर जब विभिन्न दर्शनों के रूप में हमारा चिन्तन प्रकट हुआ, तब ज्ञान और योग दोनों ही आध्यात्मिक साधना के प्रमुख अंग के रूप में सामने आये।
इतिहास के क्रम-विकास को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य उपकरणों की अपेक्षा ज्ञान की खोज की प्रवृत्ति भारत में सदा ही प्रबल रही है। हिन्दू जैन बौद्ध अथवा हिन्दुओं में भी शैव, वैष्णव आदि सम्प्रदायों में आन्तरिक रूप में अत्यन्त स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ दिखायी देती रही हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म चिन्तन और परिष्कृत साधन को अपनाने की भावना सभी संप्रदायों के आचार्यों में समान रूप से इस प्रकार पायी जाती है कि उनकी भिन्नताओं की अपेक्षा उनकी समानताएँ अधिक उभरकर सामने आती हैं। सहज-साधना की पृष्ठभूमि को समझने के लिए आवश्यक है कि मध्यकालीन सन्तों की विचारधारा को प्रभावित करने वाले उसके पूर्ववर्ती सम्प्रदायों के क्रमिक विकास पर भी विचार किया जाये।
शैवों, बौद्धों और नाथपन्थियों ने मध्यकालीन आध्यात्मिक विचारधारा को सबसे अधिक प्रभावित किया है। श्रृंखलाबद्ध अध्ययन और खोज के अभाव में मध्यकालीन सन्तों की विचारधारा को भली-भाँति समझने में बड़ी बाधा थी, किन्तु सौभाग्य से पिछले दिनों इस विषय में जो काम हुआ है, उससे उस पर कुछ प्रकाश पड़ता है। वैदिक धर्म के बाद बौद्ध विचारधारा ने भारतीय जन-जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है। आज भले ही बौद्ध-धर्मावलम्बियों की संख्या देश में अधिक न हो, किन्तु जन-जीवन पर उसका प्रभाव संस्कार बनकर छा गया है।
भगवान् बुद्ध के मत में तृष्णा के क्षय द्वारा दु:ख की निवृत्ति हो सकती है और तृष्णा के क्षय के लिए पवित्र तथा निर्दोष जीवन व्यतीत करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सामान्यत: बुद्धदेव के उपदेश व्यक्ति को दु:ख से मुक्त करके निर्वाण की ओर ले जानेवाले थे। बुद्ध के परिनिर्वाण के अनन्तर बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय में व्यक्तिगत निर्वाण के स्थान में साधक का लक्ष्य सभी प्राणियों का उद्वार करना हो गया। महायान में करुणा स्थान प्रमुख है जिसमें जीव-सेवा और दूसरे का दु:ख दूर करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म में जहाँ साधना द्वारा अपने को सक्षम बनाना आवश्यक हो गया, वहीं दूसरों को अपने मार्ग पर लाना भी आवश्यक बन गया। उसके फलस्वरूप विभिन्न वर्गों और मतों के लोगों का महायान में तेजी से प्रवेश होने लगा और अनेक प्रकार के विश्वास और उपासना की विधियों का उसमें समावेश हो गया। महायान का तेजी से विस्तार होने लगा और वह एशिया का सबसे व्यापक धर्म बन गया।
कालक्रम से बौद्ध धर्म में तन्त्र का प्रवेश हुआ। इसके पीछे यही भावना प्रबल जान पड़ती है कि साधक अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर शीघ्रता से बढ़ सके। यह प्रवृत्ति केवल बौद्ध धर्म तक ही सीमित नहीं रही, आगे चलकर हिन्दू और जैन धर्म में भी तन्त्र का प्रवेश हुआ। बौद्ध तांत्रिक विधियों से समस्त सृष्टि-क्रम का संचालन प्रज्ञा और उपाय के रूप में दिखायी देता है जो शैवों और शाक्तों की सृष्टि-संबंधी मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं रखता है। जो अन्तर है, वह साधना पद्धति और क्रम से संबंध रखता है। साधना-पद्धति की दृष्टि से सिद्ध और नाथपन्थियों में योग की प्रधानता दिखायी देती है। योग के द्वारा आत्मा को स्थिर करने में और इन्द्रियों और मन के क्षेत्र से अलग करके संयत रखने में जो सहायता मिलती रही है, उसके कारण सभी सम्प्रदायों ने उसे अपनी साधनापद्धति में स्थान दिया है। यही कारण है कि साधना के इतिहास में योग का अविच्छिन्न रूप हमें दिखायी देता है, वह चाहे अपेक्षाकृत अर्वाचीन हो या अत्यन्त प्राचीन।
महायान की दो धाराएँ हैं- पारमितानय और मन्त्रनय। दोनों का ही लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति है। पारमितानय में करुणा, मैत्री आदि की चर्या प्रधान है। पारमिताएँ छ: हैं- दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा, जिनमें प्रज्ञा अन्तिम और महत्त्वपूर्ण है। मन्त्रयान के अवान्तर भेद क्रमश: वज्रयान, काल-चक्रयान तथा सहजयान आविर्भूत हुए। वज्रयान तथा काल-चक्रयान की साधना में मन्त्र का प्राधान्य रहता है, सहजयान में मन्त्र पर जोर नहीं दिया गया है।
सहजयान में सहजावस्था की प्राप्ति ही पूर्णता की सिद्धि है। निर्वाण और महासुख उसके ही पर्याय हैं। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेदन करके निर्विकल्प पद की प्राप्ति ही सहज अवस्था है। इस अवस्था की प्राप्ति गुरु के उपदेश से होती है। गुरु को युगनद्धरूप, मिथुनाकार अर्थात् शून्यता और करुणा की मिलितमूर्ति अथवा उपाय और प्रज्ञा का समरस विग्रह माना गया है। जो मन और इन्द्रियों के पथ पर निरन्तर भ्रमण करते हैं, वे सहज तत्व का ग्रहण नहीं कर सकते। सहजिया मत में मध्यमार्ग का अवलम्बन कर बिन्दु को स्थिर करते हुए उसको संचालित करने पर क्रमश: महासुख पद्म के केन्द्र-स्थान में पहुँच जाता है। सहज-मार्गियों के अनुसार यह पथ रागपथ है, वैराग्य-पथ नहीं।
बौद्ध महायान के सम्प्रदाय के अन्तर्गत सहज और वज्रमार्ग में अनुभूति-सम्पन्न आचार्य जहां सिद्ध कहलाते थे, वहीं शैव नाथपन्थ के आचार्य भी सिद्ध कहे जाते थे। बहुत-से सिद्धगण और शैवनागपन्थ के आचार्यों के नाम एक ही हैं। परम्परा के अनुसार ये सिद्धगण अपनी प्राकृत और अतिप्राकृत शक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। बौद्ध-साधना का नाथ-परम्परा से बहुत घनिष्ठ संबंध रहा है। वास्तव में बौद्ध सिद्धगण विचारधारा के अनुसार नागपन्थी और साम्प्रदायिक परम्परा से बौद्ध थे।
आध्यात्मिक क्षेत्र में चिन्तन और तप का बहुत महत्त्व रहा है। परवर्ती वैदिक युग में कर्मकाण्ड की तुलना में इन दोनों प्रवृत्तियों का स्थान ऊँचा रहा है। इन दोनों के समन्वय से योग का मार्ग अस्तित्व में आया और उपनिषद्-काल में सदाचार के मेल से योग की महिमा बढ़ी। इस प्रकार आध्यात्मिक उन्नति के लिए सदाचरण, ज्ञान और तप की त्रिवेणी को सामूहिक रूप से महत्व प्राप्त हुआ। इनका यह अर्थ नहीं कि अध्यात्म के क्षेत्र में भक्ति को कोई स्थान नहीं था। भक्ति की धारा भले ही अतीत की पृष्ठभूमि में क्षीण दिखायी दे, किन्तु उसकी श्रृंखला अनवरत रूप में लक्षित होती है। गीतों में हमें इन सभी तत्वों के स्पष्ट रूप से दर्शन होते हैं।
भारतीय अध्यात्म का इतिहास हमें बताता है कि निरन्तर परीक्षण के द्वारा अनुभवजन्य ज्ञान वैज्ञानिक रूप धारण करता गया और तुलनात्मक अनुभव और परीक्षण से उसे समन्यात्मक रूप मिलता गया।
आध्यात्मिक जगत् में इसके अनेक उदाहरण हैं। सहज-साधना अध्यात्मजगत् का एक ऐसा ही समन्वयमूलक वैज्ञानिक रूप है।
सहज-साधना का अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप हमें कबीर और उनके समवर्ती सन्तों की वाणियों में देखने को मिलता है, किन्तु इसका सीधा संबंध किसी सम्प्रदाय से नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि यह एक प्रक्रिया की ऐसी परिणति है, जो हमें मध्यकाल के सगुण और निर्गुण दोनों ही प्रकार के भक्तों की रचनाओं में दिखायी देती इसका कारण यह है कि इन दोनों ही प्रकार के भक्तों ने मूल को पकड़ने की चेष्टा की है और उसकी अभिव्यक्ति क्रमश: प्रेमाभिव्यक्ति के रूप में अधिक स्पष्ट हुई है। कबीर की रचनाओं में जो तन्मयता हमें दिखायी देती है, वह सहसा अन्यत्र उस युग सन्तों में भी कम मिलती है। कबीर के पूर्ववर्ती अध्यात्म-ज्ञानियों के जीवन पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जिस अवस्था को उन्होंने विशेष साधनाओं से प्राप्त किया था, वह कबीर के लिए अत्यन्त स्वाभाविक अनुभूति के रूप में सुलभ थी। व्यक्ति के रूप में साधना के क्षेत्र में सफलता की दृष्टि से यह स्थिति अत्यन्य महत्वपूर्ण जान पड़ती है, किन्तु इसके पीछे युगों का चिन्तन, मनन और अभ्यास का इतिहास निहित है जिस पर दृष्टिपात करना अत्यन्त रूचिकर और ज्ञानवर्द्धक हो सकता है।
वैदिक काल से स्पष्ट ही कर्मकाण्ड की प्रधानता से समाज पर यह प्रवाह होना स्वाभाविक था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को यज्ञ-याग आदि के द्वारा पुण्यमय बनाये। कर्मकाण्ड की प्रधानता से चिन्तन की भावना को यदि दुर्बल नहीं बनाया तो उसके लिए अवकाश की कमी अवश्य कर दी। सामाजिक जटिलता की बुद्धि के साथ-साथ चिन्तन की स्थिति कमजोर होती गयी, जिसकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक थी। फलस्वरूप उपनिषद् और आरण्यकों में चिन्तन और एकान्त-सेवन के महत्व का विशेष रूप से अनुभव करते हैं। मानव-इतिहास में सबसे पहले ज्ञान और तप की जितनी प्रभावशाली झलक दिखायी देती है, उसका उदाहरण अन्यत्र किसी साहित्य में मिलना कठिन है। आगे चलकर जब विभिन्न दर्शनों के रूप में हमारा चिन्तन प्रकट हुआ, तब ज्ञान और योग दोनों ही आध्यात्मिक साधना के प्रमुख अंग के रूप में सामने आये।
इतिहास के क्रम-विकास को देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य उपकरणों की अपेक्षा ज्ञान की खोज की प्रवृत्ति भारत में सदा ही प्रबल रही है। हिन्दू जैन बौद्ध अथवा हिन्दुओं में भी शैव, वैष्णव आदि सम्प्रदायों में आन्तरिक रूप में अत्यन्त स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ दिखायी देती रही हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म चिन्तन और परिष्कृत साधन को अपनाने की भावना सभी संप्रदायों के आचार्यों में समान रूप से इस प्रकार पायी जाती है कि उनकी भिन्नताओं की अपेक्षा उनकी समानताएँ अधिक उभरकर सामने आती हैं। सहज-साधना की पृष्ठभूमि को समझने के लिए आवश्यक है कि मध्यकालीन सन्तों की विचारधारा को प्रभावित करने वाले उसके पूर्ववर्ती सम्प्रदायों के क्रमिक विकास पर भी विचार किया जाये।
शैवों, बौद्धों और नाथपन्थियों ने मध्यकालीन आध्यात्मिक विचारधारा को सबसे अधिक प्रभावित किया है। श्रृंखलाबद्ध अध्ययन और खोज के अभाव में मध्यकालीन सन्तों की विचारधारा को भली-भाँति समझने में बड़ी बाधा थी, किन्तु सौभाग्य से पिछले दिनों इस विषय में जो काम हुआ है, उससे उस पर कुछ प्रकाश पड़ता है। वैदिक धर्म के बाद बौद्ध विचारधारा ने भारतीय जन-जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है। आज भले ही बौद्ध-धर्मावलम्बियों की संख्या देश में अधिक न हो, किन्तु जन-जीवन पर उसका प्रभाव संस्कार बनकर छा गया है।
भगवान् बुद्ध के मत में तृष्णा के क्षय द्वारा दु:ख की निवृत्ति हो सकती है और तृष्णा के क्षय के लिए पवित्र तथा निर्दोष जीवन व्यतीत करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सामान्यत: बुद्धदेव के उपदेश व्यक्ति को दु:ख से मुक्त करके निर्वाण की ओर ले जानेवाले थे। बुद्ध के परिनिर्वाण के अनन्तर बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय में व्यक्तिगत निर्वाण के स्थान में साधक का लक्ष्य सभी प्राणियों का उद्वार करना हो गया। महायान में करुणा स्थान प्रमुख है जिसमें जीव-सेवा और दूसरे का दु:ख दूर करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। इसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म में जहाँ साधना द्वारा अपने को सक्षम बनाना आवश्यक हो गया, वहीं दूसरों को अपने मार्ग पर लाना भी आवश्यक बन गया। उसके फलस्वरूप विभिन्न वर्गों और मतों के लोगों का महायान में तेजी से प्रवेश होने लगा और अनेक प्रकार के विश्वास और उपासना की विधियों का उसमें समावेश हो गया। महायान का तेजी से विस्तार होने लगा और वह एशिया का सबसे व्यापक धर्म बन गया।
कालक्रम से बौद्ध धर्म में तन्त्र का प्रवेश हुआ। इसके पीछे यही भावना प्रबल जान पड़ती है कि साधक अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर शीघ्रता से बढ़ सके। यह प्रवृत्ति केवल बौद्ध धर्म तक ही सीमित नहीं रही, आगे चलकर हिन्दू और जैन धर्म में भी तन्त्र का प्रवेश हुआ। बौद्ध तांत्रिक विधियों से समस्त सृष्टि-क्रम का संचालन प्रज्ञा और उपाय के रूप में दिखायी देता है जो शैवों और शाक्तों की सृष्टि-संबंधी मान्यताओं में विशेष अन्तर नहीं रखता है। जो अन्तर है, वह साधना पद्धति और क्रम से संबंध रखता है। साधना-पद्धति की दृष्टि से सिद्ध और नाथपन्थियों में योग की प्रधानता दिखायी देती है। योग के द्वारा आत्मा को स्थिर करने में और इन्द्रियों और मन के क्षेत्र से अलग करके संयत रखने में जो सहायता मिलती रही है, उसके कारण सभी सम्प्रदायों ने उसे अपनी साधनापद्धति में स्थान दिया है। यही कारण है कि साधना के इतिहास में योग का अविच्छिन्न रूप हमें दिखायी देता है, वह चाहे अपेक्षाकृत अर्वाचीन हो या अत्यन्त प्राचीन।
महायान की दो धाराएँ हैं- पारमितानय और मन्त्रनय। दोनों का ही लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति है। पारमितानय में करुणा, मैत्री आदि की चर्या प्रधान है। पारमिताएँ छ: हैं- दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा, जिनमें प्रज्ञा अन्तिम और महत्त्वपूर्ण है। मन्त्रयान के अवान्तर भेद क्रमश: वज्रयान, काल-चक्रयान तथा सहजयान आविर्भूत हुए। वज्रयान तथा काल-चक्रयान की साधना में मन्त्र का प्राधान्य रहता है, सहजयान में मन्त्र पर जोर नहीं दिया गया है।
सहजयान में सहजावस्था की प्राप्ति ही पूर्णता की सिद्धि है। निर्वाण और महासुख उसके ही पर्याय हैं। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेदन करके निर्विकल्प पद की प्राप्ति ही सहज अवस्था है। इस अवस्था की प्राप्ति गुरु के उपदेश से होती है। गुरु को युगनद्धरूप, मिथुनाकार अर्थात् शून्यता और करुणा की मिलितमूर्ति अथवा उपाय और प्रज्ञा का समरस विग्रह माना गया है। जो मन और इन्द्रियों के पथ पर निरन्तर भ्रमण करते हैं, वे सहज तत्व का ग्रहण नहीं कर सकते। सहजिया मत में मध्यमार्ग का अवलम्बन कर बिन्दु को स्थिर करते हुए उसको संचालित करने पर क्रमश: महासुख पद्म के केन्द्र-स्थान में पहुँच जाता है। सहज-मार्गियों के अनुसार यह पथ रागपथ है, वैराग्य-पथ नहीं।
बौद्ध महायान के सम्प्रदाय के अन्तर्गत सहज और वज्रमार्ग में अनुभूति-सम्पन्न आचार्य जहां सिद्ध कहलाते थे, वहीं शैव नाथपन्थ के आचार्य भी सिद्ध कहे जाते थे। बहुत-से सिद्धगण और शैवनागपन्थ के आचार्यों के नाम एक ही हैं। परम्परा के अनुसार ये सिद्धगण अपनी प्राकृत और अतिप्राकृत शक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। बौद्ध-साधना का नाथ-परम्परा से बहुत घनिष्ठ संबंध रहा है। वास्तव में बौद्ध सिद्धगण विचारधारा के अनुसार नागपन्थी और साम्प्रदायिक परम्परा से बौद्ध थे।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book